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लघु स्थिति

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(रजिस्ट्रेशन) राजस्थान मुख्यमंत्री लघु उद्योग प्रोत्साहन योजना 2022: ऑनलाइन आवेदन

Mukhyamantri Laghu Udhyog Protsahan Yojana Rajasthan Apply Online, मुख्यमंत्री लघु उद्योग प्रोत्साहन योजना ऑनलाइन आवेदन करे और Mukhyamantri Laghu Udhyog Protsahan Yojana आवेदन की स्थिति व लाभार्थी सूची देखे | सरकार द्वारा स्वरोजगार के अवसरों को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न योजनाओं का संचालन किया जाता है। आज हम आपको राजस्थान सरकार द्वारा आरंभ की गई ऐसी ही एक योजना से संबंधित जानकारी प्रदान करने जा रहे हैं। जिसका नाम राजस्थान मुख्यमंत्री लघु उद्योग प्रोत्साहन योजना है। इस लेख को पढ़कर आपको इस प्रोत्साहन योजना से संबंधित सभी महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होगी। जैसे कि राजस्थान मुख्यमंत्री लघु उद्योग प्रोत्साहन योजना क्या है?, इसके लाभ, उद्देश्य, विशेषताएं, पात्रता, महत्वपूर्ण दस्तावेज, आवेदन प्रक्रिया आदि। तो दोस्तो यदि आप Mukhyamantri Laghu Udhyog Protsahan Yojana 2022 से संबंधित सभी महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं तो आप से निवेदन है कि आप हमारे इस लेख को अंत तक पढ़ें।

Mukhyamantri Laghu Udhyog Protsahan Yojana 2022

इस योजना प्रदेश में रोजगार के अवसर को बढ़ावा देने के लिए आरंभ की गई है। इस योजना के अंतर्गत राजस्थान सरकार द्वारा स्वरोजगार करने के लिए दिए गए ऋण पर सब्सिडी प्रदान की जाएगी। यह स्वरोजगार उद्योग या फिर सर्विस सेक्टर उद्योग होंगे। Mukhyamantri Laghu Udhyog Protsahan Yojana 2022 के लघु स्थिति अंतर्गत ना सिर्फ वह लोग आवेदन कर सकते हैं जो नई एंटरप्राइज स्थापित करना चाहते हैं बल्कि वह लोग भी विस्तार/विविधीकरण/आधुनिकरण परियोजनाओं के लिए आवेदन कर सकते हैं जिनकी एंटरप्राइज पहले से स्थापित है। राजस्थान बेरोजगारी भत्ता के लिए आवेदन करने के लिए क्लिक करें

Laghu Udhyog Protsahan Yojana

राजस्थान मुख्यमंत्री लघु उद्योग प्रोत्साहन योजना 2022 सब्सिडी

इस योजना के अंतर्गत सब्सिडी की दर 5% से 8% तक होगी। इस योजना के अंतर्गत ₹10,00,00,000 तक का लोन लिया जा सकता है। बिजनेस लोन की अधिकतम सीमा ₹1,00,00,000 है। Mukhyamantri Laghu Udhyog Protsahan Yojana 2022 के अंतर्गत ऋण का नेचर समग्र ऋण, सावधि ऋण तथा कार्यशील पूंजी ऋण हो सकता है। ₹1000000 तक के ऋण के लिए कोई भी कॉलेटरल सिक्योरिटी की जरूरत नहीं होगी। ₹1000000 तक का लोन बैंक द्वारा बिना किसी इंटरव्यू के फॉरवर्ड कर दिया जाएगा तथा ₹1000000 से ऊपर का लोन बैंक द्वारा जांच किए जाने के बाद डिस्टिक लेवल टास्क फोर्स कमेटी को फॉरवर्ड कर दिया जाएगा।

Key Highlights Of Rajasthan Mukhyamantri Laghu Udhyog Protsahan Yojana

योजना का नामराजस्थान मुख्यमंत्री लघु उद्योग प्रोत्साहन योजना
किसने लॉन्च कीराजस्थान सरकार
लाभार्थीराजस्थान के नागरिक
उद्देश्यस्वरोजगार को बढ़ावा देना
आधिकारिक वेबसाइटhttps://sso.rajasthan.gov.in/signin?ru=mlupy
साल2022
सब्सिडी दर5% से 8%

राजस्थान मुख्यमंत्री लघु उद्योग प्रोत्साहन योजना का उद्देश्य

Mukhyamantri Laghu Udhyog Protsahan Yojana का मुख्य उद्देश्य राजस्थान के नागरिकों को स्वरोजगार के लिए प्रोत्साहित करना है। इस योजना के माध्यम से ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोजगार प्राप्त होगा। जिससे कि बेरोजगारी दर में भी गिरावट होगी। इस योजना के अंतर्गत सरकार द्वारा ऋण पर सब्सिडी प्रदान की जाएगी। जिससे कि ज्यादा से ज्यादा लोग स्वरोजगार के लिए लोन लेने के लिए प्रोत्साहित होंगे और प्रदेश में स्वरोजगार बढ़ेगा।

भारत के कुटीर उद्योग | भारत के लघु उद्योग | Small Industries in India

आजादी के बाद विकास के आवश्यक आधार मानें जाने वाले, बड़े उद्योगों को महत्व दिया गया। दूसरे और तीसरे आयोजनों में बड़े उद्योग की स्थापना पर बल दिया गया, किंतु बड़े उद्योगों के पूरक माने जाने वाले लघु एवं कुटीर उद्योगों की उपेक्षा की गई। इसका परिणाम यह हुआ कि लघु एवं कुटीर उद्योग पिछड़ गए। 1948 सहित 1991 तक की सभी औद्योगिक नीतियों में इन उद्योगों के महत्व को स्वीकार किया गया है, परंतु व्यवहारिक रूप में उनकी कठिनाइयों को दूर करने का समुचित प्रयास नहीं किया गया।

लघु एवं कुटीर उद्योग की समस्याएं :

लघु एवं कुटीर उद्योग के विकास में बाधा पहुंचाने वाली समस्याओं को निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत रखा जा सकता है –

(1) कच्चे माल तथा बिजली की आपूर्ति :

लघु एवं कुटीर उद्योग को उचित मूल्य पर पर्याप्त कच्चे माल की लघु स्थिति आपूर्ति नहीं हो पाती, जिससे उत्पादन कार्यों का संचालन कठिन हो जाता है। प्रायः यही स्थिति बिजली की आपूर्ति में भी ही है। बड़े नगरों को अगर छोड़ दिया जाए तो देश के छोटे नगरों में बिजली की आपूर्ति निर्बाध नहीं है जिससे उत्पादन कार्यों में बाधा पहुंचती है।

(2) वित्त एवं साख की समस्या :

पूंजी एवं साख का अभाव लघु उद्योगों की मुख्य समस्या है। कुटीर उद्योगों के क्षेत्र में तो स्थिति और भी खराब है। लघु औद्योगिक इकाइयों का पूंजीगत आधार प्रायः काफी कमजोर होता है। हालांकि इस संदर्भ में सरकार ने राष्ट्रीय बैंकों, राज्य वित्त निगमों को उचित निर्देश दिए गए हैं। उसके बावजूद स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है। इसका कारण यह है कि सरकारी वित्त संस्थाएं साख उपलब्ध कराने के लिए जमानत के तौर पर ऋण की मात्रा के 5 गुना संपत्ति की मांग करते हैं जिससे पूरा करने में लघु एवं कुटीर उद्योग के संचालक सक्षम नहीं होते।

(3) आधुनिक मशीनों व उपकरणों का अभाव :

लघु उद्योग की अधिकांश इकाइयों के यंत्र तथा उपकरण पुराने पड़ चुके हैं। इस कारण इन उद्योगों द्वारा उत्पादित माल घटिया होता है और इस पर लागत भी अधिक आती है। इस तरह की इकाइयां बदलते परिवेश, लोगों की रूचि, फैशन आदि पर ध्यान नहीं दे पाती, जिससे प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाती है।

(4) विपणन की समस्याएं :

उत्पादन के बाद सबसे बड़ी समस्या उत्पाद की बिक्री की होती है। छोटे उत्पादकों को प्रायः माल बेचने में आने कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस तरह के उत्पादों के विपणन के लिए सरकार द्वारा कोई व्यवस्था नहीं की गई है। मजबूरन इन्हें अपना उत्पाद साहूकारों को देना पड़ता है, जो इन्हें उचित लाभ नहीं लेने देते।

(5) अस्वस्थता की समस्या :

लघु एवं कुटीर उद्योगों की समस्याओं में एक प्रमुख समस्या उनकी अस्वस्थता की है।

(2) उदारीकरण और भूमंडलीकरण का बुरा प्रभाव :

1991 में शुरू किए गए आर्थिक सुधारों की दिशा में कई कदम उठाए गए जैसे औद्योगिक लाइसेंसिंग की समाप्ति, आरक्षण में कमी, देशीय व विदेशी उद्योगों के साथ प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहन प्रशल्कों में कमी, मात्रात्मक प्रतिबंधों को समाप्त करना आदि सुधारों का लघु उद्योग क्षेत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। कई औद्योगिक क्षेत्रों जैसे रसायन, रेशम, वाहनों के पुर्जे, खिलौने, खेल का सामान, जूता उद्योग में काम कर रही इकाइयों का सस्ती व बेहतर आयातित वस्तुओं से गंभीर खतरा पैदा हो गया है। सबसे गंभीर खतरा चीन से आ रहे सस्ते आयातो से हैं। जिनकी कीमत इतनी कम है कि लघु उद्योगों के लिए अपना अस्तित्व कायम रखना कठिन हो रहा है।

लघु एवं कुटीर उद्योग के संदर्भ में सरकारी नीतियां:

(1947 – 1990 के बीच सरकार की नीति) –

स्वतंत्रता के शीघ्र बाद लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास के लिए विभिन्न कदम उठाये गए, जो इस प्रकार है –

(1) संगठित ढांचे का निर्माण:

(I) 1927 में भारत सरकार ने कुटीर उद्योग बोर्ड की स्थापना की। पहली पंचवर्षीय योजना में इसे 3 अलग-अलग बोर्डों में विभाजित कर दिया गया जो निम्नलिखित थे –

(1) अखिल भारतीय हाथकरघा बोर्ड,

(2) अखिल भारतीय हस्तशिल्प बोर्ड,

(3) अखिल भारतीय खाकी और ग्रामोद्योग बोर्ड।

(II) 1954 में लघु उद्योग विकास निगम की स्थापना की गई।

(III) 1955 में राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम की स्थापना की गई।

(IV) 1955 में ही औद्योगिक बस्तियों का कार्यक्रम शुरू किया गया। इन बस्तियों में कारखानों की स्थापना के लिए बिजली, पानी व यातायात आदि की सुविधाएं प्रदान की गई।

(V) मई, 1979 में जिला उद्योग केंद्र कार्यक्रम शुरू किया गया। इस समय देश में 422 जिला उद्योग केंद्र कार्यरत है, जो 431 जिलों का काम देख रहे हैं।

(2) योजना व्यय : योजनाओं के अंतर्गत लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास पर काफी व्यय किया गया है। पहली योजना में इन पर 42 करोड़, दूसरी योजना में 187 करोड़, छठी योजना में 1945 करोड़, सातवीं योजना में 3249 करोड़ एवं 9वी योजना में 8384 करोड़ रुपए खर्च किए गए।

(3) आरक्षित मदें : बड़े उद्योगों की प्रतिस्पर्धा से बचाने के लिए सरकार ने कुछ उत्पादन क्षेत्रों को लघु उद्योगों के लिए आरक्षित किया है। 1977 में इन मदों की संख्या 500 थी, 1989 में बढ़ाकर 836 कर दी गई।

(4) भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक की स्थापना : सरकार ने 1989 में लघु उद्योग को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक की स्थापना की थी।

(5) अन्य कदम : लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास को प्रोत्साहन देने के लिए अन्य कदम उठाए गए। जैसे –

(1) ग्रामीण उद्योगों को आवश्यक तकनीकी की जानकारी उपलब्ध कराने के लिए 1982 में एक संस्था की स्थापना की गई।

(2) सरकारी खरीद कार्यक्रमों में लघु उद्योगों को प्राथमिकता दी गई।

(3) पंजीकृत तथा अपंजीकृत सभी प्रकार की लघु इकाइयों को उत्पादन शुल्क की अदायगी में रियायतें आदि।

नई लघु उद्योग नीति 1991 :

भारत सरकार ने अगस्त 1991 में लघु, अति लघु तथा कुटीर उद्योगों के विकास को प्रोत्साहित करने के लिए एक नई नीति की घोषणा की, जो निम्नलिखित है –

(1) अति लघु क्षेत्र में निवेश की सीमा को 2 लाख से बढ़ाकर ₹5 लाख कर दिया गया। इस नीति के द्वारा उद्योग से जुड़े सेवा, व्यवसायिक उद्योग को भी शामिल किया गया।

(2) अति लघु इकाइयों के विकास के लिए एक अलग पैकेज की घोषणा की गई। इस पैकेज को देने के पीछे उद्देश्य इनका तेजी से विकास करना था।

(3) नई नीति में यह व्यवस्था की गई कि अन्य औद्योगिक इकाइयां लघु इकाइयों में 24% तक की इक्विटी निवेश कर सकती है। इससे बड़ी एवं छोटी दोनों इकाइयों को लाभ मिलने की संभावना बढ़ती है।

(4) इस नीति के द्वारा व्यवसाय संगठन का नया कानूनी दौर आरंभ किया गया जिसे सीमित साझेदारी की संज्ञा दी गई है। इस व्यवस्था में एक साझेदार का दायित्व असीमित होता है।

नई लघु उद्योग नीति की कुछ अन्य विशेषताएं:

(1) लघु तथा अति लघु इकाइयों की संपूर्ण साख मांग को पूरा करने की कटिबद्धता व्यक्त की गई। अर्थात सस्ती साख की अपेक्षा साख पर्याप्तता पर अधिक जोर दिया गया।

(2) राष्ट्रीय इक्विटी फंड तथा एक संस्था से ऋण लेने की योजना के कार्य क्षेत्र का विस्तार किया गया।

(3) सरकारी खरीद कार्यक्रमों में अति लघु क्षेत्र को प्राथमिकता देने की व्यवस्था की गई।

(4) घरेलू कच्चे माल के आवंटन में लघु तथा अति लघु क्षेत्र को प्राथमिकता देने की व्यवस्था की गई।

(5) लघु एवं अति लघु क्षेत्र के उत्पादों के विपणन के लिए सहकारी संस्थाओं तथा अन्य व्यवसायिक संगठनों की भूमिका पर जोर दिया गया।

(6) ग्रामीण एवं पिछड़े इलाकों में लघु उद्योग के विकास को प्रोत्साहन देने के लिए तथा उद्योग व कृषि में अधिक कारगर सामंजस्य स्थापित करने के लिए एकीकृत आधारिक संरचना विकास पर जोर दिया गया।

ग्रामीण विकास में ग्रामोद्योग

देश में बेरोजगारों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। कृषि प्रधान देश की सीमित खेती योग्य भूमि का क्षेत्रफल बेरोजगारों को अपने में खपा नहीं सकता है। सरकारी स्तर पर नौकरियाँ बढ़ाने की व्यवस्था करने की सम्भावना भी नहीं लगती है। ऐसी स्थिति में हर हाथ को काम देने के लिये ग्रामोद्योग का विकास उपयुक्त रणनिति हो सकता है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में कुटीर एवं लघु उद्योगों का स्थान प्राचीन काल से ही महत्त्वपूर्ण रहा है। एक जमाना था जब भारतीय ग्रामोद्योग उत्पाद का निर्यात विश्व के अनेक देशों में किया जाता था। भारतीय वस्तुओं का बाजार चर्मोंत्कर्ष पर था। किन्तु औपनिवेशिक शासन में ग्राम उद्योगों का पतन हो गया। फलतः हमारे गाँव एवं ग्रामवासी गरीबी के दल-दल में फँस गए हैं। ऐसे गाँवों के विकास में ग्राम-उद्योग का अपना महत्व है। गाँवों के विकास के अभाव में भारत की समृद्धि, सम्पन्नता व आत्मऩिर्भरता अर्थहीन है। विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (1949) ने अपनी रिपोर्ट में ग्राम्य जीवन के महत्व को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “नगरों का विकास गाँवों से होता है और नगरवासी निरन्तर ग्रामवासियों के परिश्रम पर ही पनपते हैं। जब तक राष्ट्र का ग्रामीण कर्मठ है तब तक ही देश की शक्ति और जीवन आरक्षित है। जब लम्बे समय तक शहर गाँवों से उनकी आभा और संस्कृति को लेते रहते हैं और बदले में कुछ नहीं देते, तब वर्तमान ग्राम्य जीवन तथा संस्कृति के साधनों का ह्रास हो जाता है और राष्ट्र की शक्ति कम हो जाती है।”

गाँवों के विकास में लघु एवं कुटीर उद्योग की भूमिका को स्पष्ट करते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने कहा थाः “जब तक हम ग्राम्य जीवन को पुरातन हस्तशिल्प के सम्बंध में पुनः जागृत नहीं करते, हम गाँवों का विकास एवं पुनर्निर्माण नही कर सकेंगे। किसान तभी पुनः जागृत हो सकते हैं जब वे अपनी जरूरतों के लिये गाँवों पर ही निर्भर रहें न कि शहरों पर, जैसा की आज। “उन्होनें आगे कहा था-” बिना लघु एवं कुटीर उद्योगों के ग्रामीण किसान मृत है, वह केवल भूमि की उपज से स्वयं को नहीं पाल सकता। उसे सहायक उद्योग चाहिए।” गाँधीजी ने परतंत्रता काल में भारतवासियों की दुर्दशा देखने के बाद राष्ट्रीय आन्दोलन एवं विकास की दृष्टि से एकादश व्रत के साथ-साथ कुछ रचनात्मक कार्यक्रम तय किए थे। इसमें खादी और दूसरे ग्रामोद्योग को ग्राम विकास की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है। उस समय भी विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर विदेशी व्यापार को चोट पहुँचाने की दृष्टि से इसका महत्व कम नहीं था।

स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू यद्यपि देश के तीव्रगामी विकास के लिये बड़े उद्योगों को अधिक महत्व देते थे, फिर भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने हेतु गाँवों में लघु एवं कुटीर उद्योगों की स्थापना पर बल दिया करते थे। उनका मानना था कि गाँवों के विकास के लिये घरेलू उद्योग का विकास स्वतंत्र इकाइयों के रूप में किया जाना आवश्यक है। राष्ट्रीय विकास की योजना बनाने एवं कार्यान्वित करने के लिये 1950 में योजना आयोग का गठन किया गया था। जिसने स्पष्ट किया है- लघु एवं कुटीर उद्योग हमारी अर्थव्यवस्था के महत्त्वपूर्ण अंग हैं जिनकी कभी भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है।

देश में बेरोजगारों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। कृषि प्रधान देश की सीमित खेती योग्य भूमि का क्षेत्रफल बेरोजगारों को अपने में खपा नहीं सकता है। सरकारी स्तर पर नौकरियाँ बढ़ाने की व्यवस्था करने की सम्भावना भी नहीं लगती है। ऐसी स्थिति में हर हाथ को काम देने के लिये ग्रामोद्योग का विकास उपयुक्त रणनिति हो सकता है।

ग्रामोद्योग का आशय

“ग्राम-उद्योग” की परिधि में वे सभी उद्योग-धंधे आते हैं जो ग्रामवासी अपने घरों के आस-पास पारम्परिक रीतियों अथवा जाति-विशेष के कौशल का उपयोग करते हुए निष्पादित करते हैं। यही कारण है कि सामान्यतया स्थानीय कच्चे माल, कौशल, पूँजी, तकनीक, उपभोग पर आधारित उत्पादन को ग्रामोद्योग की संज्ञा दी जाती है। ऐसे उद्योग को कुटीर उद्योग, लघु उद्योग एवं कृषि आधारित उद्योग कहते हैं। ग्रामीण उद्योगों के विकास-विस्तार की दिशा में नियमित कार्यशील संस्था खादी और ग्रामोद्योग आयोग के संशोधित अधिनियम 1987 के अनुसार ग्रामोद्योग का अर्थ है ग्रामीण क्षेत्र, जिसकी जनसंख्या 10 हजार या इसके आस-पास हो, में स्थापित कोई उद्योग जो बिजली का इस्तेमाल करके या बिना इस्तेमाल किए कोई वस्तु उत्पादित करता हो या कोई सेवा करता है। जिसमें स्थिर पूँजी निवेश (संयंत्र, मशीनरी, भूमि और भवन में) प्रति कारीगर या कार्यकर्ता 15,000 रुपये से अधिक न हो। 1949-50 के भारतीय संरक्षण आयोग ने कुटीर एवं लघु उद्योग को अलग-अलग परिभाषित किया है।

वास्तव में कुटीर उद्योग घर में चलाया जाने वाला यानी पारिवारिक माहौल में उत्पादन करने वाला घरेलू उद्योग होता है लेकिन लघु उद्योग का अर्थ उन उद्योगों से लिया जाता है जो छोटे स्तर पर उत्पादन करता हो। इसकी परिभाषा पूँजी निवेश, प्रबंध एवं अन्य स्थितियों पर बदलती रही है। अंततः यह स्वीकारना होगा कि कुछ मामलों में लघु उद्योग, ग्रामीण उद्योग एवं कुटीर उद्योग आपस में मेल खाते हैं। कुल 26 उत्पाद ग्रामोद्योग के अंतर्गत आते थे। लेकिन वर्ष 1990-91 के दौरान इसमें 70 नए उत्पाद शामिल किए गए। अब कुल 96 वस्तुओं के उत्पादक ग्रामोद्योग हैं जिन्हें खनिज आधारित उद्योग, वनाधारित उद्योग, कृषि आधारित उद्योग, चमड़ा और रसायन उद्योग, गैर परम्परागत ऊर्जा और इंजीनियरिंग उद्योग, वस्त्रोद्योग तथा सेवा उद्योग नामक समूहों में बाँटा गया है। ग्रामीण भारत के आर्थिक विकास में इन उद्योगों का स्थान काफी महत्त्वपूर्ण माना गया है।

ग्रामोद्योग का विकास

आजादी के बाद लघु उद्योगों के विकास के लिये अत्यधिक प्रयास किए गए। सन 1948 में देश में कुटीर उद्योग बोर्ड की स्थापना हुई तथा प्रथम पंचवर्षीय योजना काल में इनके विकास हेतु 42 करोड़ रुपये की राशि खर्च की गई। फिर 1951, 1977, 1980 एवं 1991 की औद्योगिक नीतियों की घोषणाओं में लघु एवं कुटीर उद्योगों को प्रमुख स्थान दिया गया है। सबके मिले-जुले प्रयासों से लघु उद्योगों की प्रगति हुई तथा इससे देश में बेरोजगारी दूर करने तथा अर्थव्यवस्था को सुधारने मे काफी मदद मिली है। इस बात की पुष्टि कुछ आँकड़ों से होती है।

देश में पंजीकृत तथा कार्यरत लघु औद्योगिक इकाइयों की गणना पहली बार 1972 में पूर्ण हुई थी जिसमें 1.40 लाख इकाइयों की गणना की गई थी। वर्तमान गणना 15 वर्ष बाद 1988 में संपन्न हुई है जिसके अनुसार देश में 5.82 लाख इकाइयां कार्यरत हैं। 15 वर्षों के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि उत्पादन, रोजगार व अन्य दृष्टि से लघु औद्योगिक क्षेत्र ने उच्च वृद्धि दर प्राप्त की है। इनसे वर्ष 1972-73 में 16.53 लाख लोगों को रोजगार मिला था वह वर्ष 1987-88 में बढ़कर 36.66 लाख तक पहुँच गया। निर्यात में भी वृद्धि की दर अधिक रही है। वर्ष 1972-73 में 127 करोड़ रुपये का निर्यात किया गया था जो वर्ष 1987-88 में बढ़कर 2,499 करोड़ रुपये हो गया। रोजगार एवं निर्यात की सम्भावना को देखते हुए सरकार ने लघु उद्योगों के विकास के लिये आवंटन में सातवीं योजना के मुकाबले में आठवीं योजना में चौगुनी वृद्धि की है।

आठवीं योजना का उद्देश्य

श्रम-प्रधान एवं पूँजी के अभाव से ग्रस्त देश की आठवीं पंचवर्षीय योजना में ग्रामीण तथा पिछड़े इलाकों में छोटे उद्योगों का जाल बिछाने की आवश्यकता पर काफी बल दिया गया है। यह प्रयास गरीबी और बेरोजगारी की समस्याओं से निपटने के लिये किया गया एक सराहनीय कदम है। 1990-95 तक की अवधि के लिये तैयार इस योजना दस्तावेज में छोटे उद्योगों की तीन उप-श्रेणियों में विभाजित करके उनके लिये अलग-अलग रणनीति अपनाने की बात कही गई है, खासकर ऐसे उद्योगों के लिये आधुनिकी-करण कोष स्थापित करने का प्रस्ताव किया गया है और इसके लिये 1,000 करोड़ रुपये की व्यवस्था करने की योजना है। इससे 4.5 लाख उद्यमियों के लाभान्वित होने तथा 41.5 लाख लोगों को रोजगार मिलने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है।

वास्तविक सम्भावनाएँ

आँकड़ों की भाषा की सम्भावनाएँ हाथी के दिखावटी दाँत साबित हो सकते हैं लेकिन लघु, कुटीर जैसे ग्रामोंद्योगों के विकास से खेती के क्षेत्रों में लगे लोगों की बेरोजगारी की समस्या, प्रदूषण की समस्या, गाँव से शहर की ओर श्रम पलायन की समस्या, पूँजी की समस्या, महिला रोजगार की समस्या का अन्त होगा और दूसरी ओर ग्रामीण अर्थव्यवस्था बेहतर बनेगी। इससे कुशल-अकुशल श्रमिक का भेद मिटेगा और प्रशिक्षण व्यय जैसे अनेक खर्चों में कटौती होगी। इसके अलावा सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि गाँव शहर बनेगा लघु स्थिति जो राष्ट्रीय विकास का संकेत है।

खेद का विषय है कि इतनी सम्भावनाओं के रहते हुए भी देश में लघु उद्योगों का विकास बौना नजर आता है। रुग्ण इकाइयों की बढ़ती संख्या इसका सबसे बड़ा सबूत है। आठवीं योजना के परिणाम आने के बाद ही कुछ कहा जा सकता है। फिलहाल यह कहा जा सकता है कि ग्रामोद्योग के विकास-विस्तार से ग्रामीण विकास के प्रयास को सफलता मिल सकती है, क्योंकि ग्रामीण बेरोजगारी को दूर करने एवं अर्थव्यवस्था में सुधार लाने की क्षमता लघु उद्योगों में समाहित है।

राष्ट्रीय उद्यमशीलता और लघु व्यवसाय विकास संस्थान (निस्बड)

राष्ट्रीय उद्यमशीलता और लघु व्यवसाय विकास संस्थान, कौशल विकास और उद्यमशीलता मंत्रालय का एक प्रमुख संगठन है, जो उद्यमशीलता और कौशल विकास को बढ़ावा देने के लिए प्रशिक्षण, परामर्श, अनुसंधान आदि में कार्यरत, इस संस्थान की प्रमुख गतिविधियों में प्रशिक्षकों का प्रशिक्षण, प्रबंधन विकास कार्यक्रम, उद्यमशीलता-सह-कौशल विकास कार्यक्रम, उद्यमशीलता विकास कार्यक्रम और क्लस्टर हस्तक्षेप शामिल हैं। यह संस्थान विदेश मंत्रालय के तत्वावधान में आईटीईसी राष्ट्र प्रतिभागियों के लिए सक्रिय रूप से अंतर्राष्ट्रीय प्रशिक्षण प्रदान का रहा है। यह संस्थान वर्ष 2007-08 से वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर है।

यह संस्थान ए-23, सेक्टर-62, नोएडा, उत्तर प्रदेश के एकीकृत परिसर तथा देहरादून, उत्तराखंड के एक क्षेत्रीय कार्यालय से संचालित होता है। यह लगभग 10,000 वर्ग मीटर क्षेत्र में स्थापित है जिसमें 40,000 वर्ग फुट निर्मित क्षेत्र है। इसकी अवसंरचना में लाइब्रेरी के अतिरिक्त 8 क्लास रूम, 1 प्रेक्षाग्रह और 1 सम्मेलन कक्ष शामिल हैं। इसमें एक छात्रावास भी है, जिसमें 32 कमरे और अन्य सुविधाएं उपलब्ध हैं।

BSEB Bihar Board | Bharati Bhawan Class 9th Geography Chapter 1 | Question and Answer | भूगोल अध्याय 1 भारत-स्थिति और विस्तार अतिलघु उत्तरीय प्रश्न, लघु उत्तरीय, दीर्घ प्रश्न

BSEB Bihar Board | Bharati Bhawan Class 9th Geography Chapter 1 | Question and Answer | भूगोल अध्याय 1 भारत-स्थिति और विस्तार अतिलघु उत्तरीय प्रश्न, लघु उत्तरीय, दीर्घ प्रश्न

उत्तर :- 2 बढ़ते अक्षांश के कारण तापमान घटता जाता है| यही कारण है करल और तमिलनाडु में जो कि विषुवत रेखा के निकट है| सदा तापमान अधिक रहता है| जम्मू कश्मीर में जो विषुवत रेखा से काफी दूर है| तापमान बहुत कम रहता है जिसका प्रभाव वहां की खेती खान-पान वेशभूषा दिनचर्या आदि पर प्रभाव पड़ता है|

उत्तर :- भारत के प्राचीन लघु स्थिति विश्वविद्यालयों में अध्ययन करने के लिए तिब्बत चीन जापान और यूरोपीय देशों के विद्यार्थी आया करते थे| यही नहीं स्थल मार्ग और समुद्र मार्ग से होकर भारत के गरम मसाले सूती रेशमी कपड़े आदि दूर देशों तक पहुंचाए जाते थे| भारत की स्थिति विश्व के प्रमुख महासागरीय व्यापारिक मार्ग पर स्थित है| इसका सबसे बड़ा लाभ विश्व के अधिकतम देशों से व्यापारिक संबंध जोड़ने में होता है| जैसे पूर्वी एशिया दक्षिणी एशिया अफ्रीका यूरोप ऑस्ट्रेलिया आदि देशों में इस मार्ग द्वारा भारत व्यापारिक संबंध रखता है |

उत्तर :- वास्तविक संदर्भ में भारत की स्थिति इसे अंतरराष्ट्रीय जगत में महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करता है| इसकी स्थिति विश्व के प्रमुख व्यापारिक मार्ग पर है| पश्चिम में यूरोप एवं पूर्व में ऑस्ट्रेलिया के मध्य भारत स्थित है| हिंद महासागरीय देशों में अन्य किसी भी देश को ऐसा स्थिति का लाभ प्राप्त नहीं है| 869 में स्वेज नहर खुलने से भारत एवं यूरोप के बीच लगभग 7000 किलोमीटर की दूरी कम हो गई| इससे समुद्री जहाज के बजाय अब स्वेज नहर मार्ग होकर जाने लगे हैं| इसके कारण समय और धन दोनों की बचत होती है| भारत के साथ ही साथ इस मार्ग से जाने वाले सभी जहाजों को यही लाभ मिलता है| यूरोप से पूर्वी एशिया दक्षिणी एशिया ऑस्ट्रेलिया जाने वाले जहाजों को भारत होकर आना पड़ता है| ऐसी स्थिति में भारत हिंद महासागरीय व्यापारिक मार्ग के साथ ही साथ स्वेज नहर मार्ग एवं दक्षिणी प्रशांत महासागरीय मार्ग से भी जुड़ा हुआ है| यही नहीं भारत का इन देशों एवं क्षेत्रों से व्यापारिक संबंध भी है|

भारत का विश्व के साथ न केवल समुद्री जलमार्ग द्वारा संपर्क बना रहा है बल्कि इसका संपर्क स्थल मार्गो से भी रहा है| भारत का पश्चिमी मध्य तथा पूर्वी एवं दक्षिणी पूर्वी एशिया के विभिन्न देशों के साथ संपर्क व्यापारिक दृष्टि से रहा है और आज भी है| मसाला मलमल कपड़े तथा कई अन्य समान भारत से विभिन्न देशों को रेशम मार्ग से निर्यात होता रहा है| आज भी भारत अंतरराष्ट्रीय व्यापार से अपनी स्थिति के कारण विभिन्न देशों को कई सामान निर्यात करता है|

उत्तर :- भौगोलिक दृष्टि से भारत का मुख्य भूभाग 8 डिग्री 4 से 37 डिग्री उत्तर अक्षांश तथा 68 डिग्री 7 से 97 डिग्री 25 पूर्वी देशांतर ओ तक फैला है| कर्करेखा (23 डिग्री 30 उत्तर अक्षांश) इस देश के दो समान भागों में बांट देती है| विस्तार भारत एक विस्तृत देश है| इसके उत्तरी सिरे से 22 डिग्री उत्तरी अक्षांश तक पूर्वी पश्चिमी विस्तार बढ़ता गया है| इसका सबसे अधिक विस्तार (2,933 किलोमीटर) लगभग 22 डिग्री अकश पर मिलता है|

समुद्र में स्थलीय भाग का निकला नुकीला भाग जो तीन ओर से समुद्र से घिरा हो अंतरित कहलाता है| भारत के इसी अंतरित का नाम कुमारी अंतरीप है| भारत के उत्तरी छोर से इस छोड़ की दूरी 3214 किलोमीटर है| भारत के मुख्य भूमि की समुद्र तटीय सीमा रेखा 6100 किलोमीटर है| परंतु भारतीय द्वीपों की तटीय सीमा रेखा की लंबाई इसमें जोड़ने पर कुल तटीय सीमा रेखा 7516.6 किलोमीटर होती है| भारत की स्थल सीमा रेखा 15200 किलोमीटर है|

उत्तर :- देशांतरीय विस्तार का प्रभाव समय पर पड़ता है जो जो पश्चिम से पूर्व की ओर बढ़ते हैं| समय बढ़ता जाता है इसी कारण जहां अरुणाचल प्रदेश में जिस समय सूर्योदय होता है उससे ठीक 2 घंटे बाद कच्छ प्रदेश (गुजरात) में सूर्योदय होता है| अतः बिराती डिग्री पूर्वी देशांतर रेखा को भारत का मानक याम्योत्तर (मानक देशांतर) माना जाता है जो कि उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर से गुजरती है|

उत्तर :- भारत की स्थिति हिंद महासागर के शीर्ष पर है इसका सबसे बड़ा लाभ विश्व के अधिकतम देशों से व्यापारिक संबंध जोड़ने में होता है| जैसे पूर्वी एशिया दक्षिण एशिया अफ्रीका यूरोप ऑस्ट्रेलिया आदि देशों से इन मार्ग द्वारा भारत व्यापारिक संबंध रखता है|

6. भारत की स्थिति देश में एकता और सांस्कृतिक विशेषता बनाए रखने में किस प्रकार सहायक सिद्ध हुई है इसलिए जलवायु को किस प्रकार प्रभावित किया है इस पर भी प्रकाश डालें |

उत्तर :- भगवान की दृष्टि से भारत का मुख्य भूभाग 8 डिग्री 4 से 7 डिग्री उत्तरी अक्षांश तथा 68 डिग्री 797 डिग्री 25 पूर्व देशांतर तक फैला है| 2004 के पुरुष का सबसे दक्षिणी छोर या दक्षिणतम बिंदु डिग्री उत्तरी अक्षांश पर स्थित था| जो कि अंडमान और निकोबार द्वीप समूह का सबसे दक्षिणी छोर था और यह 2004 में सुनामी लहरों के चलते जलमग्न हो गया है या इंदिरा पॉइंट चलाता था| यह विषुवत रेखा से लगभग साढे 600 किलोमीटर उत्तर है| कर्करेखा (23 डिग्री 30 उत्तर) इस देश को दो समान भागों में बांट देती है| भारत का सबसे उत्तरी सिरा 37 डिग्री उत्तरी अक्षांश पर है जो कश्मीर के उत्तरी छोर पर पड़ता है और दक्षिणतम चोर 8 डिग्री 4 उत्तर अक्षांश पर है|

भारत का उत्तरी भाग हिमालय पहाड़ और दक्षिण भाग सागरों से घिरा है| देश का अधिक भाग प्रकृति बनावट से घिरा है| यही प्राकृतिक बनावट देश की एकता और सांस्कृतिक विशिष्टता की पहचान है|

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